अनुसूचित क्षेत्र में नगर पालिका की संवैधानिक सार्थकता ?
प्रस्तावना- भारत एक विविधता भरा देश हैए जहां अनेक जनजातियाँए भाषाएँए संस्कृतियाँ और सामाजिक संरचनाएँ मौजूद हैं। इसी बहुलता को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान ने अनुसूचित क्षेत्रों की विशेष व्यवस्था की है। अनुसूचित क्षेत्रए वे क्षेत्र हैं जहाँ अनुसूचित जनजातियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक हैए और जिनके लिए संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है। वहीं दूसरी ओर, 74वाँ संविधान संशोधन ;1992द्ध द्वारा नगर पालिकाओं की स्थापना को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गयाए जिससे नगरीय स्थानीय स्वशासन को मजबूती मिली। किन्तु जब यह दोनों व्यवस्थाएँ अनुसूचित क्षेत्र और नगर पालिका एक साथ आती हैं, तो अनेक संवैधानिक और व्यावहारिक प्रश्न खड़े होते हैं। क्या नगर पालिकाओं की स्थापना अनुसूचित क्षेत्र की आत्मनिर्भर और परंपरागत स्वशासी व्यवस्थाओं को कमजोर करती हैघ् या क्या यह आदिवासी समाज के नगरीकरण के नए युग की आवश्यकता हैघ् इस आलेख में इन्हीं प्रश्नों का संवैधानिकए सामाजिक और प्रशासनिक विश्लेषण किया गया है।
अनुसूचित क्षेत्र की अवधारणारू एक ऐतिहासिक और संवैधानिक दृष्टि
भारतीय संविधान का पाँचवाँ अनुसूची उन क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान करता है जहाँ अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या सघन रूप से पाई जाती है। यह अनुसूची राष्ट्रपति को यह अधिकार देती है कि वे किन्हीं राज्यों के विशेष क्षेत्रों को -रु39यअनुसूचित क्षेत्र-रु39य घोषित करें। वर्तमान में यह व्यवस्था छत्तीसगढ़ए मध्य प्रदेशए झारखंडए ओडिशाए राजस्थानए गुजरातए महाराष्ट्रए हिमाचल प्रदेशए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में लागू है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की पारंपरिक स्वायत्त शासन व्यवस्थाए संस्कृतिए भूमि अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की रक्षा करना संविधान की प्राथमिकता है। संविधान के अनुच्छेद 244;1द्ध के तहत पाँचवीं अनुसूची में उल्लेखित क्षेत्रों के लिए -रु39यट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल-रु39य ;ज्।ब्द्ध का गठन और राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं ताकि वे इन क्षेत्रों के लिए विशेष नियम बना सकें।
नगर पालिका की संवैधानिक व्यवस्थारू नगरीय प्रशासन का आधार
1992 में पारित 74वें संविधान संशोधन अधिनियम ने शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। इसका उद्देश्य था नगरीय प्रशासन को विकेन्द्रीकृत करना और नागरिकों को शासन में सहभागी बनाना। इस अधिनियम के तहत तीन श्रेणियों की नगर पालिकाएँ गठित की गईंरू नगर निगमए नगर परिषद और नगर पंचायत। इन निकायों को निम्नलिखित अधिकार और कर्तव्य सौंपे गए।
आधारभूत नगरीय सुविधाओं का प्रबंधन
जल आपूर्तिए साफ.सफाईए प्रकाश व्यवस्था
शहरी नियोजनए भवन निर्माण अनुज्ञा
आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से संबंधित योजनाएँ
संघर्ष का क्षेत्र:| अनुसूचित क्षेत्र बनाम नगर पालिका
जब अनुसूचित क्षेत्र में कोई कस्बा या शहर नगर पालिका के रूप में घोषित किया जाता हैए तो यह स्थिति एक संघर्ष उत्पन्न करती है दृ एक ओर पारंपरिक आदिवासी शासन व्यवस्थाए और दूसरी ओर आधुनिक स्थानीय स्वशासन। यह संघर्ष कई स्तरों पर देखा गया हैरू
1. परंपरागत बनाम संवैधानिक ढाँचा
अनुसूचित क्षेत्र की परंपरा ग्राम सभा आधारित सामूहिक निर्णयों की हैए जो समुदाय की सहमति से चलता है। वहीं नगर पालिका प्रतिनिधियों की संख्या सीमित होती है और निर्णयों का विकेन्द्रीकरण सीमित होता है। यह आदिवासी सहभागिता को कमजोर कर सकता है।
2. भूमि अधिकारों का संकट
नगर पालिका के गठन के साथ ही भूमि के ष्शहरीकरणश् की प्रक्रिया शुरू होती है। इससे पारंपरिक भूमि व्यवस्था टूटती है और निजी भूमि अधिग्रहणए लीज़ व अन्य शहरी विकास योजनाओं के ज़रिये आदिवासियों की भूमि से बेदखली की आशंका बढ़ जाती है।
3. प्रशासनिक विसंगतियाँ
नगर पालिकाओं को राज्य सरकारें नियंत्रित करती हैं जबकि अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यपाल की शक्तियाँ विशेष हैं। इससे दोहरा प्रशासनिक ढाँचा उत्पन्न होता है जो नीति.निर्माण और योजना क्रियान्वयन में टकराव लाता है।
4. पंचायत ;अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तारद्ध अधिनियम 1996 ;पेसाद्ध की अवहेलना
पेसा अधिनियम के तहत ग्राम सभाओं को निर्णायक अधिकार दिए गए हैं। लेकिन नगरपालिकाओं के अंतर्गत पेसा लागू नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे ही कोई ग्राम नगर पंचायत बनता हैए वहाँ की ग्राम सभा का अधिकार समाप्त हो जाता है दृ यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है।
अनुसूचित क्षेत्र में नगर पालिका से होने वाले संभावित लाभ
हालाँकि नगर पालिकाओं की स्थापना के कुछ संवैधानिक और सांस्कृतिक विरोधाभास हैंए परंतु यदि यह व्यवस्था सही दिशा में क्रियान्वित की जाएए तो अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को नगरीय विकास के कई लाभ मिल सकते हैं।
1. आधारभूत सुविधाओं में सुधार
नगर पालिकाओं के माध्यम से सड़कए जल आपूर्तिए सीवेज व्यवस्थाए कूड़ा प्रबंधनए बिजली और सार्वजनिक शौचालय जैसी सुविधाओं में सुधार संभव होता है। अनुसूचित क्षेत्रों में अक्सर इन सेवाओं की कमी रही हैए जिसे नगर पालिका नियोजित ढंग से पूरा कर सकती है।
2. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की उन्नति
शहरी प्रशासन के अंतर्गत सरकारी स्कूलोंए अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को अधिक संसाधनए बजट और निगरानी मिलती है। इससे आदिवासी समुदायों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
3. रोजगार और स्वरोजगार के अवसर
नगर पालिका क्षेत्र मे कल कारखानों और छोटे छोटे बाजार स्थापित होने से युवाओं को रोजगार के अवसर अधिक प्राप्त हो सकते है तथा नवीन तकनीकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण के अवसर भी प्राप्त हो सकता है । इससे पारंपरिक कृषि.निर्भरता से हटकर नवाचारी रोजगार विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं।
4. नगरीय योजनाओं में भागीदारी
यदि नगर पालिका के ढाँचे में स्थानीय लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाएए तो वे नगर नियोजनए विकासए बजट निर्धारण और सेवाओं के क्रियान्वयन में भागीदार बन सकते हैं। इससे उनका राजनीतिक सशक्तिकरण भी होता है।
5. सूचनाए तकनीक और डिजिटलीकरण तक पहुँच
नगर पालिका क्षेत्रों में डिजिटल सेवाएँ जैसे कि ऑनलाइन प्रमाणपत्रए पेंशनए सब्सिडी, जन्म.मृत्यु पंजीकरण, ळप्ै आधारित योजना निर्माण आदि तेजी से लागू होते हैं। यह प्रशासन में पारदर्शिता और पहुँच बढ़ाता हैए जिससे आदिवासी भी मुख्यधारा की सेवाओं से जुड़ सकते हैं।
6. महिला और वंचित समूहों को प्रतिनिधित्व
नगर पालिकाओं में महिलाओं और अनुसूचित जातिध्जनजाति के लिए आरक्षण के माध्यम से सामाजिक समावेश सुनिश्चित किया जाता है। इससे आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक मंच प्राप्त होता हैए जो उनके सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
समय की मांगरू संवैधानिक समाधान और पुनर्रचना
1. नगर पालिका की संरचना का स्थानीयकरण
अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विशेष प्रकार की नगर पालिका की संरचना विकसित की जानी चाहिएए जो पेसा की भावना के अनुरूप हो। जैसे दृ ष्आदिवासी नगर परिषदश् या ष्ग्राम सभा आधारित नगर निकायश्ए जिसमें निर्णय प्रक्रिया में ग्राम सभा की भागीदारी अनिवार्य हो।
2. राज्यपाल की मंजूरी अनिवार्यता
संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहतए अनुसूचित क्षेत्र में लागू किसी भी कानून को राज्यपाल की स्वीकृति आवश्यक है। अतः नगर पालिका अधिनियमों को संशोधित कर यह प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए कि अनुसूचित क्षेत्र में नगर पालिका की स्थापना से पूर्व राज्यपाल की मंजूरी और ज्।ब् से परामर्श अनिवार्य हो।
3. भूमि अधिकारों की रक्षा
शहरीकरण की प्रक्रिया में आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा हेतु विशेष कानूनी सुरक्षा कवच तैयार किया जाना चाहिए। किसी भी विकास योजना में ग्राम सभा की स्वीकृति अनिवार्य की जानी चाहिए।
4. नगरीकरण की वैकल्पिक नीति
आदिवासी क्षेत्रों के शहरीकरण के लिए विशेष नीति तैयार की जानी चाहिए जो प्राकृतिक संसाधनोंए सांस्कृतिक परंपराओं और स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखे। इसमें पारंपरिक वास्तुकलाए सामुदायिक स्वच्छता मॉडलए सामूहिक खेती व आदिवासी बाजारों की पुनःस्थापना जैसे उपाय शामिल हो सकते हैं। अनुसूचित क्षेत्रों के लिए एक विशेष नगर पालिका मॉडल विकसित किया जाना चाहिए जिसमें पारंपरिक ग्राम सभा की भूमिका बनी रहे और साथ ही आधुनिक सुविधाएँ भी पहुँचे। इसे नए रूप में डिज़ाइन किया जा सकता हैए जो संविधान की पाँचवी अनुसूचीए पेसा और शहरी शासन की त्रिवेणी को समाहित करे।
न्यायिक दृष्टिकोण और सामाजिक आंदोलनों की भूमिका
भारत के विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदायों ने नगर पालिका के विरुद्ध आंदोलन किए हैं। समय समय पर अनुसूचित क्षेत्रों के राज्यों की ग्राम सभाओं ने प्रस्ताव पारित कर नगर पालिका को अस्वीकार किया तथा छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय और अन्य न्यायिक मंचों ने यह स्पष्ट किया है कि अनुसूचित क्षेत्र में स्थानीय निकायों की स्थापना से पूर्व संविधान की पाँचवीं अनुसूची और पेसा का पालन करना अनिवार्य है।
निष्कर्ष
संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार और गरिमा का जीवन जीने का आश्वासन दिया है। अनुसूचित क्षेत्रों के लिए नगर पालिका व्यवस्था एक दोधारी तलवार के समान है दृ यदि यह स्थानीय संस्कृति और अधिकारों की अनदेखी कर थोपी जाती हैए तो यह शोषण का माध्यम बन सकती हैय लेकिन यदि इसे संवैधानिक मर्यादाओं और आदिवासी भागीदारी के साथ लागू किया जाएए तो यह समावेशी विकास का साधन बन सकती है। इसलिए समय की मांग है कि नगर पालिका की संरचना को अनुसूचित क्षेत्र की विशिष्टता के अनुसार परिवर्तित किया जाए जिसमें विकास भी हो और संस्कृति की रक्षा भी तभी नगर पालिका व्यवस्था वहाँ सार्थक कही जा सकती है।