"सामाजिक न्याय की ओर बढ़ते कदम: जातिगत जनगणना”
जातिगत जनगणना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में अंतिम बार व्यापक जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। इसके बाद 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित जनगणना की गई, लेकिन उसकी जातिगत सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया गया। स्वतंत्र भारत की जनगणनाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो होती रही, परंतु अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अन्य जातियों की कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है ।
जातिगत जनगणना की आवश्यकता
1. नीतिगत योजनाओं की प्रभावशीलता: जातिगत आंकड़ों के बिना योजनाएं लक्ष्यहीन होती हैं। स्पष्ट आंकड़े योजनाओं को अधिक सटीक और प्रभावी बना सकते हैं।
2. संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण: जातिगत आंकड़ों से यह स्पष्ट होगा कि किन समुदायों को अधिक सहायता की आवश्यकता है, जिससे संसाधनों का न्यायसंगत वितरण संभव हो सकेगा।
3. आरक्षण की समीक्षा और सुधार: यह जानकारी मिल सकेगी कि किन समूहों को आरक्षण का वास्तविक लाभ मिला है और किन्हें नहीं। इससे आरक्षण प्रणाली को अधिक समावेशी बनाया जा सकेगा।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व: इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि कौन-से समुदाय राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में कम प्रतिनिधित्व रखते हैं।
आदिवासियों समुदायों पर प्रभाव
जातिगत जनगणना का प्रभाव आदिवासी समुदायों पर विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो सकता है, क्योंकि यह समुदाय लंबे समय से गरीब और प्रताड़ित रहा है और उसके सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक अधिकारों की उपेक्षा होती रही है। अनुसूचित जनजातियों की गणना हर जनगणना में होती रही है, लेकिन जातिगत जनगणना एक गहराई से देखने वाला उपकरण बन सकता है जो आदिवासियों की आंतरिक विविधताओं और वास्तविक स्थिति को सामने ला सकता है। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हो सकते हैं:
1. आदिवासी समाज की आंतरिक विविधता का खुलासा
भारत में आदिवासी समुदाय एक समान नहीं है—इनमें कई जनजातियाँ हैं, जिनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में काफी भिन्नता है। जातिगत जनगणना से यह जानकारी मिल सकती है कि कौन-सी जनजातियाँ अत्यधिक वंचित हैं और किन्हें अपेक्षाकृत अधिक लाभ मिला है। इससे नीति निर्माण अधिक लक्ष्य-संलग्न हो सकेगा।
2. नीतियों और योजनाओं की पुनर्संरचना
जातिगत आंकड़ों के आधार पर आदिवासियों के लिए बनी योजनाओं में पारदर्शिता और प्रभावशीलता लाई जा सकती है। इससे उन जनजातियों की पहचान हो सकेगी जिन्हें अब तक विकास की मुख्यधारा में लाने के प्रयास कमजोर रहे हैं। पिछड़े जनजातीय समूहों को लक्षित करते हुए योजनाएं बनाई जा सकेंगी।
3. आरक्षण की समीक्षा: जिन जनजातियों को अपेक्षित लाभ नहीं मिला है, उनके लिए विशेष प्रावधान बनाए जा सकते हैं।
4. राजनीतिक भागीदारी में सुधार: जनजातीय नेतृत्व को सशक्त करने हेतु ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।
5. मानवाधिकार संरक्षण: आंकड़ों से मानवाधिकार उल्लंघनों को सामने लाकर प्रभावी कार्रवाई संभव हो सकेगी।
संभावित चुनौतियाँ
1. जातीय तनाव: आंकड़ों के आधार पर सामाजिक विभाजन या प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है।
2. राजनीतिक दुरुपयोग: आंकड़ों की व्याख्या वोट बैंक राजनीति के लिए की जा सकती है।
3. प्रशासनिक जटिलता: विस्तृत जनगणना से प्रशासन पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।
4. गोपनीयता और सटीकता: आंकड़ों की विश्वसनीयता और उपयोग की पद्धति चुनौतीपूर्ण हो सकती है।
निष्कर्ष- जातिगत जनगणना केवल आँकड़ों का संग्रह नहीं है, यह सामाजिक न्याय को मजबूत करने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। यदि इसे वैज्ञानिक, पारदर्शी और संवेदनशील तरीके से किया जाए तो यह ऐतिहासिक असमानताओं को समझने और उन्हें दूर करने का एक सशक्त माध्यम बन सकती है। 21वीं सदी में एक समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में जातिगत जनगणना न सिर्फ जरूरी है, बल्कि अनिवार्य भी है । जातिगत गणना सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक सुरक्षा, और आर्थिक सशक्तिकरण के औजार के रूप में देखा जाता है । यह न केवल एक प्रशासनिक आवश्यकता है, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता और अधिकारों की पुनःस्थापना का संवैधानिक और नैतिक आधार भी है। आदिवासियों के लिए जातिगत जनगणना उनके अधिकारों और उन्हें न्याय दिलाने की दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकती है और उनके भीतर की आवाजें और विविधताएँ और नीतिगत निर्णय जैसे आरक्षण मे उप-वर्गीकरण, डि-लिस्टिंग, जनसंख्या के अनुपात मे आरक्षण, क्रीमीलेयर आदि विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर विचार-विमर्श करते हुए आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण एवं उपयोगी निर्णय लेने मे सरकार को आसानी रहेगी।
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आलेख - डॉ. ललित लट्टा (पूर्व निदेशक)
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, दिल्ली