ग्वालियर में 2500 लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया: जातिवाद के खिलाफ बड़ी क्रांति
June 10, 2025
ग्वालियर, 10 जून 2025: आज मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक ऐतिहासिक घटना हुई, जहां 2500 लोगों ने हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया। यह आयोजन उस बढ़ते असंतोष को दर्शाता है, जो भारत में दलित समुदाय और अन्य निचली जातियों के लोगों के बीच जातिगत भेदभाव और अत्याचार के कारण पैदा हुआ है। इस समारोह को स्थानीय नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आयोजित किया, जो इसे एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में देख रहे हैं। यह घटना डॉ. भीमराव अंबेडकर की विरासत को आगे बढ़ाने और उनके द्वारा शुरू की गई बौद्ध धर्म अपनाने की परंपरा का हिस्सा मानी जा रही है, जिन्होंने 1956 में 4 लाख से अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था।
घटना का विवरण
समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पोस्ट्स के अनुसार, ग्वालियर में आयोजित इस समारोह में सैकड़ों लोगों ने भाग लिया। आयोजकों का दावा है कि यह कदम हिंदू समाज में दलितों पर हो रहे लगातार अत्याचारों और सामाजिक असमानता के खिलाफ एक शक्तिशाली बयान है। पोस्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि देश में दलितों की आबादी लगभग 35 करोड़ है, हालांकि आधिकारिक 2011 की जनगणना के अनुसार यह संख्या लगभग 20.14 करोड़ (16.6% जनसंख्या) है, जिसमें से केवल 7-8% लोग बौद्ध धर्म में परिवर्तित हुए हैं। यह अंतर संभवतः संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का प्रयास हो सकता है ताकि इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा को प्रोत्साहित किया जा सके।
धर्म परिवर्तन क्यों जरूरी है?
धर्म परिवर्तन का यह कदम केवल धार्मिक पहचान बदलने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक मांग का प्रतीक है। डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को इसलिए अपनाया था क्योंकि यह धर्म जाति व्यवस्था को पूरी तरह से खारिज करता है और समानता पर जोर देता है। बौद्ध धर्म में कोई ऊंच-नीच या वर्ण व्यवस्था नहीं है, जो हिंदू धर्म में गहरे तक पैठी हुई है। ग्वालियर में हुए इस परिवर्तन को भी इसी संदर्भ में देखा जा रहा है।
- जातिगत अत्याचारों से मुक्ति: हिंदू समाज में दलितों पर शारीरिक हिंसा, सामाजिक बहिष्कार, और आर्थिक बहिष्कार जैसी घटनाएं आम हैं। वेब स्रोतों के अनुसार, जैसे कि विकिपीडिया पर "कास्ट-रिलेटेड वायलेंस इन इंडिया" पेज, देशभर में उच्च जातियों द्वारा दलितों पर अत्याचार की घटनाएं दर्ज की गई हैं, जिसमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं। इस संदर्भ में धर्म परिवर्तन एक ऐसा तरीका बन गया है, जिसके माध्यम से लोग अपनी गरिमा और सम्मान की रक्षा करना चाहते हैं।
- राजनीतिक हथियार के रूप में धर्म परिवर्तन: "द अटलांटिक" (2018) के लेख में उल्लेख है कि दलित नेता मायावती ने भी हिंदू राष्ट्रवादी नीतियों के खिलाफ बौद्ध धर्म अपनाने की धमकी दी थी। ग्वालियर की घटना भी इसी तरह का राजनीतिक संदेश देती है, खासकर जब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी पर दलित विरोधी नीतियों का आरोप लगाया जाता है।
- समानता और पहचान की खोज: बौद्ध धर्म में 22 प्रतिज्ञाएं लेना, जो अंबेडकर ने शुरू की थीं, न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक क्रांति का हिस्सा हैं। ये प्रतिज्ञाएं जातिवाद, अंधविश्वास, और असमानता को अस्वीकार करती हैं। ग्वालियर में परिवर्तित हुए लोग भी इन मूल्यों को अपनाकर एक नई पहचान गढ़ना चाहते हैं, जहां उन्हें इंसान के रूप में सम्मान मिले।
- संवैधानिक बाधाएं और रास्ता: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म का उप-संप्रदाय माना जाता है, जिससे धर्म परिवर्तन को कानूनी मान्यता मिलने में कठिनाई होती है। इसके बावजूद, यह रास्ता दलितों के लिए अन्य धर्मों (जैसे इस्लाम या ईसाई धर्म) में परिवर्तन पर लगे राज्य कानूनों से बचने का एक वैकल्पिक तरीका है।
चुनौतियां और विवाद
इस घटना को लेकर सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई है। कुछ लोग इसे स्वागतयोग्य कदम मान रहे हैं, वहीं अन्य सवाल उठा रहे हैं कि क्या इन 2500 लोगों ने आरक्षण जैसी सुविधाएं छोड़ दी हैं, क्योंकि बौद्ध धर्म में जाति आधारित आरक्षण की कोई मान्यता नहीं है। एक यूजर ने ट्वीट में लिखा, "अगर धर्म बदल लिया, तो आरक्षण भी छोड़ देना चाहिए, वरना यह दिखावा है।" दूसरी ओर, कुछ ने इसे जातिवादियों के खिलाफ एक क्रांति बताया, लेकिन आबादी के 35 करोड़ के दावे को अतिशयोक्ति करार दिया, क्योंकि वास्तविक आंकड़े इससे काफी कम हैं।
निष्कर्ष
ग्वालियर में हुई यह घटना केवल एक धार्मिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक सामाजिक जागरूकता और समानता की मांग का प्रतीक है। यह सवाल उठाता है कि क्या हिंदू समाज अपनी भीतरी कमियों को सुधार सकता है या दलितों को अपनी गरिमा के लिए धर्म परिवर्तन जैसे कदम उठाने पड़ेंगे। यह आंदोलन भविष्य में और बड़े रूप ले सकता है, खासकर अगर जातिगत भेदभाव और अत्याचार पर रोक नहीं लगाई गई। डॉ. अंबेडकर का सपना समानता का था, और ग्वालियर की यह घटना उस सपने को जीवित रखने की एक कोशिश है।