✍ राजेश कुमार बौद्ध, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)। दलित साहित्य की पुरी अवधारणा से दलित जीवन संघर्ष की सैकड़ों आत्मकथाएं, कहानियाँ, गीत, कविताएं, नाटक हमारे सामने आ रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिय ने सवर्ण समाज के जातीय अत्याचारों का पर्दाफाश किया है, दलितों में संधर्ष चेतना आत्मसम्मान का भाव पैदा किया है, साथ ही समानता के संधर्ष को बदल दिया है। प्रतिरोध की नवीन जन संस्कृति की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा है। दलितों के बीच बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार ने नवीन संस्कृति का प्रभाव पैदा किया है इस प्रक्रिया के कारण दलितों ने ब्राह्मणवादी, कर्मकाण्ड, अंधविश्वास जैसी परम्पराओं का परित्याग किया है।
वैज्ञानिक चिंतन का प्रभाव भी दलितों में पहले की अपेक्षा बढ़ा है लेकिन ये भी देखने में आ रहा है कि पढ़े-लिखे दलित वर्ग के एक हिस्से में नये कर्मकाण्डों का चलन भी शुरू हुआ है। जिसने ब्राह्मणवाद की चुनौती देते हुए दलित ब्राह्मणवाद का रूप अख्तियार करना शुरू किया। निश्चित ही ये धारा दलित सांस्कृति आन्दोलन को पीछे ले जायेंगी और वर्णवादी जातिवादी पूर्वाग्रहों को और मजबूती प्रदान करेगी। इस परिघटना का और अधिक अध्ययन विश्लेषण करने की जरूरत है।
दलित साहित्य के अधिकांश पाठक चर्चित रचनाकारों को पढ़ते रहे हैं और पढ़ते रहते हैं, प्रायः उनके आधार पर ही दलित कविता की प्रवृत्तियों का विश्लेषण भी करते हैं। जीवन में आए बदलावों के साथ साहित्य के सरोकार और प्रवृत्तियां भी बदलती है, सामाजिक-आर्थिक संबंधों और परिस्थितियों के साथ-साथ भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश भी साहित्य की प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले तक दलितों के शिक्षा ध्दार बंद थे, वह दलितों का निरक्षर काल था। अंग्रेजी शासन के दौरान उनके लिए शिक्षा के दरवाजे खुले लेकिन अस्पृश्यता की प्रबल भावना के चलते उच्चजातियों ध्दारा उनकी शिक्षा का विरोध तथा शिक्षकों के असहयोगी और भेद भावपूर्ण रवैया के कारण बहुत कम दलित ही शिक्षा ग्रहण कर सकें। दलितों की जनसंख्या की तुलना में शिक्षित या साक्षर दलितों की संख्या को नगण्य ही कहां जा सकता है।
स्वाधीनता के पश्चात बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ध्दारा भारतीय संविधान में शिक्षा के साथ- साथ समानता को सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार बना दिए जाने के पश्चात दलितों में शिक्षा का प्रसार हुआ। इसी काल में दलित लेखकों की साहित्यिक रचनाओं की प्रवृत्तियों में कुछ न कुछ भिन्नता या अंतर दिखाईं देता है। इसलिए स्वामी अछूतानन्द हरिहर और हीरा डोम के काल की साहित्यिक प्रवृत्तियां कबीर और रैदास के काल की प्रवृत्तियों में भिन्न हैं।
भारत के किसी भी हिस्से की बात करें दलित सब जगह जातिगत ऊच-नीच, भेदभाव के कारण के कारण अपमान, शोषण और अस्पृश्यता के शिकार रहे हैं। जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता का दंश सभी दलितों को कभी न कभी, किसी न किसी रूप में सहने को मिला है। इसलिए किसी भी भाषा में लिखा हो, दलित साहित्य में सर्वत्र असमानता, अन्याय और शोषण का प्रतिकार तथा असमानता और शोषणमूलक व्यवस्था के जनक और पोषक, ब्राह्मणवादी सामंतवादी वर्गों के प्रति आक्रोश मिलता हैं।
इसके साथ ही एक बहुत बड़ा सामाजिक बदलाव भारतीय संविधान के ध्दारा भी लाया गया जिसके ध्दारा समाज के कमजोर वर्गों को अनेक प्रकार की सुविधायें जैसे शिक्षा, नौकरी, विधान सभा और लोक सभा में आरक्षण, लिखने पढ़ने के अवसर आदि इन्हें प्राप्त होने लगी जिसके कारण दलितों को मुख्यधारा के समाज राजनीति एवं अकादेमियां में दर्ज होने का अवसर मिल सका। इस प्रकार से बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहां था यह शिक्षा ही हैं जिसे सामाजिक दासता खत्म करने के लिए हथियार के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है और शिक्षा के माध्यम से ही कमजोर और दलित वर्ग के लोग सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर यह मानते थे कि मनुष्यों में राजनीतिक समानता और कानून के समक्ष समानता स्थापित करके समानता के सिद्धांत को पूरी तरह सार्थक नहीं किया जा सकता। जब तक उनमें सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जाती तब तक उनकी समानता अधूरी रहेगी।
आधुनिक काल में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का मंदिर प्रवेश के आन्दोलन का उद्देश्य समानता का अधिकार ही था, परन्तु यह विचार मंदिर और उसमें बैठे काल्पनिक भगवान के नाम पर उस दलित को हजारों सालों से मूर्ख बनाया गया उसकी समझ से परे था।यदि तभी इसके विरोध में संपूर्ण भारतीय दलितों को यह संदेश दिया जाता कि भगवान और उसके प्रकोप से मत डरो और उसको मत पूजो वह किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है तो क्या आज उसका महत्व नहीं होता जो वर्तमान में है ? मंदिर प्रवेश आन्दोलन की बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की मंशा कितने दलित समझ पाए ? यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन दलितों ने उसे पोषित अवश्य किया और उसके महत्व को बढ़ाया, यही कारण है कि आज तक दलितों के मन, मस्तिष्क से भगवान का भूत नहीं उत्तर पाया है। आज तो समाज के पढ़े लिखे लोग भाग्य और भगवान के साथ ही साथ पुरोहितों के चरणस्पर्श करने में मग्न हो रहा है, चाहे संविधान रहे या न रहे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि पढ़ा लिखा व्यक्ति आज ज्यादा अंधविश्वास में ब्यस्त है।
समाज से हर तरफ के शोषण को समाप्त करना चाहते थे, मनुष्य की मुक्ति के लिए वे आजीवन संधर्ष करतें रहे और कलम के महायोध्दा बनकर भारतीय समाज में समता, बंधुता, स्वतंत्रता और न्याय आदि आर्दश मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवाद के खिलाफ पुरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपने अंतिम समय तक लड़ते रहे। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर, ज्योति राव फूले और तथागत गौतम बुद्ध के चिंतन व दर्शन का उन पर बड़ा गहरा प्रभाव था, और यही प्रभाव उनके साहित्य पर भी स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता हैं, यही चिंतन उनके लेखन की ऊर्जा बनी।
देश आजाद होने के बावजूद भारतीय समाज में जातिवाद के कारण गंभीर त्रासदी, गहन पीड़ा, चिंता तथा शोषण से गुजर रहा है, जिसके कारण समाज से मनुष्यता समाप्त हो गयी है। दिन-प्रतिदिन देश में दलितों, मजदूरों, किसानों, महिलाओं और अल्पसंख्यक समाज पर अन्याय और अत्याचार लगातार बढ़ रहा है।
भारत में ब्राह्मणवाद ने दलित जातियों के बीच ऊंच नीच, भेदभाव और छुआछूत की भावना इस कदर कूट-कूट कर भर रखी है कि वे आपस में कभी मिलजुल कर न रह सकें। दलितों की एकता ब्राह्मणवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, इस बात को तथाकथित उच्च जाति के लोग भली-भांति जानते हैं और इसलिए ही वे समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए आज भी वर्ण- जाति व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहते। अगर ब्राह्मणवाद जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़नी है तो दलितों को अपने अंदर के जातिवाद को खत्म करना होगा, अपने अंदर के जातिवाद को खत्म किए बिना वे जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने में कामयाब नहीं हो सकते हैं।
राजेश कुमार बौद्ध, (उत्तर प्रदेश)
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